हिंदू धर्म में, "धर्म" शब्द का अर्थ है "धारण करना" या "वह जो धारण करता है"। इसका मतलब है एक व्यक्ति का कर्तव्य, उसका सही आचरण, और उसका धार्मिक मार्ग। यह जीवन जीने का सही तरीका है, जो व्यक्ति को अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करता है और उसे समाज और ब्रह्मांड के साथ सद्भाव में रहने में सक्षम बनाता है।
कर्तव्य – प्रत्येक व्यक्ति का जीवन में जो कर्तव्य है, वही उसका धर्म है। जैसे एक राजा का धर्म है प्रजा की रक्षा करना, एक विद्यार्थी का धर्म है अध्ययन करना।
नैतिकता – सही और गलत का ज्ञान, सदाचार और न्याय करना धर्म का हिस्सा है।
संरचना और व्यवस्था – धर्म वह शक्ति है जो समाज और सृष्टि की व्यवस्था को बनाए रखती है।
स्वधर्म – हर व्यक्ति का अपना एक व्यक्तिगत धर्म होता है जो उसकी प्रकृति, जाति, अवस्था और जीवन-भूमिका पर निर्भर करता है।
मनुस्मृति में धर्म के 10 लक्षण बताए गए हैं:
धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध।
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, पवित्रता, इंद्रियों पर नियंत्रण, बुद्धि, ज्ञान, सत्य और क्रोध न करना)
भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
"स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।"
(अपने धर्म में मृत्यु भी कल्याणकारी है, दूसरे के धर्म का पालन भयावह होता है।)
धर्म एक व्यापक अवधारणा है जो जीवन के हर पहलू को शामिल करती है। यह एक व्यक्तिगत और सामाजिक मार्गदर्शक सिद्धांत है जो व्यक्तियों को एक सार्थक और पूर्ण जीवन जीने में मदद करता है।
धर्म केवल पूजा-पाठ या रीति-रिवाजों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक जीवन पद्धति है जो आत्मा, समाज और ब्रह्मांड के संतुलन को बनाए रखने का कार्य करती है।