Jul 08, 2025

रुद्र संहिता भाग तृतीय

 तीसरा अध्याय

नारदजी द्वारा शिवगणों को शाप


ऋषि बोले- हे महाभाग व्यास-शिष्य सूतजी! आपको नमस्कार है, जो आपने कृपा कर हमारे लिये इस अद्भुत चरित्र का वर्णन किया है। हे तात! यह सब आप हमसे कहिए। 

श्रीव्यासजी कहते हैं कि जब पौराणिकों में उत्तम सूतजी से ऋषियों ने इस प्रकार पूछा तो उनकी अनेक स्तुतियों को सुनकर शिवजी का स्मरण करते हुए सूतजी बोले- जब नारदजी चले गये तो भगवान् ने अपनी माया को प्रेरित कर नारदजी के जाने वाले मार्ग में सौ योजन विस्तार वाले एक सुन्दर नगर की रचना कर दी, जो उनके विष्णुलोक से भी सुन्दर और अनेक वस्तुओं से परिपूर्ण था और जिसमें ऐश्वर्य-सम्पन्न शीलनिधि नाम का राजा अपनी पुत्री के स्वयंवर का महान् उत्सव कर रहा था और जिसमें चारों ओर के राजा आये हुए थे तथा वे सभी कन्या के वरण में उत्सुक हुए अनेक प्रकार के वेषों से शोभा-सम्पन्न थे।

 ऐसेनगर को देख कर नारदजी मुग्ध हो गये और उनमें काम का अद्भुत संचार हो आया। कौतुकी नारद राजा के द्वार पर जा पहुँचे और राजा शीलनिधि ने उन्हें श्रेष्ठ रत्नों के सिंहासन पर बिठा कर उनकी पूजा की और श्रीमती नामक अपनी कन्या को बुला कर नारदजी के चरणों में प्रणाम कराया।

 तब उस कन्या को देखते ही नारदजी विस्मित हो राजा से उसका परिचय पूछने लगे और परिचय पाकर काम-विह्वल हो उसको पाने की इच्छा कर राजा से बोले-हे राजन्! तुम्हारी यह कन्या सब लक्षणों से युक्त है, बड़ी भाग्यशालिनी और धन्य है। इसमें लक्ष्मी के-से सभी गुण विद्यमान् हैं और देवताओं में श्रेष्ठ, सबका ईश्वर, जो किसी से जीता न जा सके, शिवजी के समान विभु और जो काम को जीतने वाला होगा, निश्चय ही वही इसका पति होगा।

ऐसा कह कर नारदजी राजा को आज्ञा देकर शिवमाया से मोहित स्वेच्छापूर्वक वहाँ से चल दिये और मन में विचारने लगे कि इसको स्वयंवर में किस प्रकार प्राप्त करूँ तथा यह सब राजाओं को छोड़ अकेले मेरा ही वरण कैसे करेगी? स्त्रियों को प्रायः सुन्दरता ही अत्यन्त प्रिय होती है जिसे देख कर स्त्रियाँ प्रसन्न हो निःसंदेह उसके वश में आ जाती हैं। तब विष्णुजी बड़े सुन्दर हैं, नारदजी उनका रूप माँगने के लिये विष्णु-लोक चले गये।

 वहाँ विष्णुजी को नमस्कार कर काम-विह्वल नारदजी ने शीलनिधि राजा की विशालनेत्रा कन्या श्रीमती का परिचय देकर स्वयंवर में उसको वरण करने की इच्छा व्यक्त की और कहा कि, यदि आप अपना रूप मुझको दे दें तो अवश्य ही वह मुझको प्राप्त हो सकती है। आपके बिना वह मेरे कंठ में जयमाल नहीं डालेगी। 

हे नाथ! आप मुझे अपना रूप दीजिये, क्योंकि मैं आपका प्रिय सेवक हूँ। सूतजी कहते हैं कि मुनि के इस वचन को सुनकर भगवान् हँसे और शिवजी की प्रभुता को जान कर दया से यह वचन बोले- हे मुने! आप जहाँ जाना चाहें चले जाइये। जैसे वैद्य रोगी का हित करता है वैसे ही मैं आपका प्रिय कार्य करूँगा, क्योंकि आप मेरे प्यारे हो।

 ऐसा कहकर भगवान् विष्णु ने मुनि को बन्दर का मुख दे दिया और इन पर कृपा करने के लिये अन्तर्धान हो गये। मुनि ने समझा कि हरि ने मुझ पर कृपा कर दी। वह कृतार्थ हो चले, परन्तु उनके यत्न को नहीं पहचाना। 

फिर मुनिश्रेष्ठ नारदजी शीघ्र ही वहाँ गये, जहाँ राजपुत्रों से घिरा हुआ स्वयंवर हो रहा था। फिर तो राजपुत्रों से व्याप्त और दिव्य वह स्वयंवर सभा जो उस समय इन्द्र की सभा के समान शोभायमान हो रही थी, उसमें जाकर नारदजी बैठ गये और विचारने लगे कि अब तो विष्णु रूपधारी मुझको राजकन्या निश्चय ही वरण करेगी, उन्होने अपने मुख को कुरूप नहीं जाना। 

अन्य सब मनुष्यों ने भी मुनि के पूर्व रूप को ही देखा और अन्य सभी राजपुत्रों ने भी उस भेद को न जाना। परन्तु वहाँ दो रुद्रगण जो ब्राह्मण के वेश में नारदजी की रक्षा के लिये आये थे वे उस भेद को जानते थे। वे दोनों मुनि को मूढ़ समझ कर मुनि के पास गये और परस्पर बातें करते हुए नारदजी की हँसी करने लगे। 

छलयुक्त उन्होने नारदजी का परिहास किया। काम-विह्वल मुनि ने उनके वाक्य को यथार्थ रूप में नहीं सुना और राज-कन्या को प्राप्त करने की इच्छा से उसी को देखते हुए मोहित हो गये।इसी बीच वह राज- कन्या बहुत सी स्त्रियों सहित अन्तः पुर से पति-वरण की इच्छा से चली, जिसके हाथ में सुवर्ण की माला थी और वह सुन्दर व्रतवाली साक्षात लक्ष्मी के समान सभा में आ पहुँची तथा अपने समान वर को ढूँढती हुई घूमने लगी।

तब मुनि का और सब रूप तो विष्णु का सा था; किन्तु मुख बन्दर का सा देख कर वह मुनि पर अत्यन्त कुपित हुई और वहाँ से दृष्टि हटा कर प्रसन्न मन से आगे चली। उसने सारी सभा को देखा पर किसी को अपने अनुरूप न पाकर माला नहीं पहनाया । इसी समय राजा जैसा स्वरूप धारण किये हुए श्रीविष्णुजी वहाँ आये जिन्हें राज-कन्या के सिवा किसी ने नहीं देखा।

भगवान् को देखते ही कन्या का मुखकमल प्रसन्न हो उठा और वर चाहने वाली उसने भगवान् के गले में माला पहना दी। राजा रूपधारी विष्णु उसको लेकर शीघ्र ही अन्तर्धान हो अपने स्थान को चले गये। अन्य राजकुमार राज-कन्या के न पाने से निराश हो गये। तथा नारदजी काम से और भी विह्वल हो गये। तब उन दोनों रुद्र गणों ने काम-विह्वल नारद से कहा कि, आप तो व्यर्थ ही काम - मोहित हो उस कन्या की चाह करते हैं। पहले अपना मुख तो देखिए जो कि बन्दर के समान बना है। 

सूतजी कहते हैं कि उनके वाक्य सुन कर नारदजी ने आश्चर्य किया और शिवजी की माया से मोहित उन मुनि ने अपना मुख जल में जाकर देखा तो अत्यन्त क्रुद्ध हो उन्होंने दोनों गणों को शाप दे दिया और कहा कि तुमने मुझ ब्राह्मण की हँसी की है, अतः राक्षस हो जाओ। 

शिवजी के गण उनके इस शाप को सुन कर और मुनि को मोहित हुआ जान कर कुछ भी न बोले और शिवजी की स्तुति करते को चले गये। यह सब शिवजी की इच्छा थी ।

ॐ नमः शिवाय