सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो! विष्णुजी के अन्तर्धान होने पर नारदजी भक्तिपूर्वक शिव-लिंगों का दर्शन करते हुए पृथ्वी पर विचरने लगे। उन्होने कितने ही शिव-लिंगों का प्रेमपूर्वक दर्शन किया।
उसी समय रुद्र के गण, जिन्हें उन्होंने शाप दिया था उनके (नारदजी के) समीप में जाकर चरणों पर गिर उनसे क्षमा माँगी और कहा कि हे मुनिवर्य! आपका अपराध करने वाले हम वास्तव में ब्राह्मण नहीं है।
किन्तु हम दोनों महादेवजी के गण हैं जिन्हें राज-पुत्री के स्वयंवर में माया से मोहित चित्त होकर परेश की प्रेरणा से आपने हमको शाप दिया था।
उस समय हमने कुसमय जान कर मौन रहना ही अच्छा समझा था, अन्यथा आप हमारा प्राण भी ले लेते। परन्तु अब तो आप प्रसन्न होकर हम पर कृपा कीजिये ।
सूतजी कहते हैं कि जब उन गणों ने भक्ति और आदर से इस प्रकार प्रार्थना की तो उनके वचनों को सुनकर पश्चात्ताप करते हुए मुनि ने कहा- हे सत्पुरुषों में मान्य महादेवजी के गणों शिवजी की इच्छा से पहले निश्चय ही मेरी बुद्धि नष्ट हो गई थी जिससे मोहवश मैने तुमको शाप दे दिया; परन्तु जो कुछ कहा गया वह तो होना ही है, तो भी हे गणों! सुनो, मेरे अपराध को क्षमा करो।
अब मैं तुम्हारे शापोद्धार का उपाय कहता हूँ। तुम श्रेष्ठ मुनि के वीर्य से जन्म लेकर राक्षस होगे जहाँ तुम्हें सब प्रकार ऐश्वर्य, प्रताप और बल प्राप्त होगा।
तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के राजा और जितेन्द्रिय शिव-भक्त होगे और वहीं शिव के दूसरे शरीर से मर कर पुनः अपना पद प्राप्त करोगे। सूतजी कहते हैं कि नारदजी के इन वाक्यों को सुन कर महादेवजी के गण प्रसन्नता से अपने स्थान को चले गये।
नारदजी भी शिव- लिंगों का दर्शन करते हुए दूसरी ओर पृथ्वी पर पर्यटन करने लगे। चलते-चलते वे काशीपुरी में काशीनाथजी के दर्शन करने गये, जो सबके ऊपर विराजमान शिवजी को प्रिय, शिव को सुख देने वाली और शिव स्वरूपिणी नगरी है।
उसके दर्शन कर वे कृतार्थ हो गये। वहाँ परम आनन्द से उन्होंने काशीनाथ शिवजी का पूजन किया और उनकी महिमा वर्णन करते हुए प्रेम से विह्वल हो गये। पश्चात् नारदजी ब्रह्मलोक को गये। वहाँ जाकर उन्होंने अनेक प्रकार से अपने पिता ब्रह्मा से शिव-तत्त्व को पूछा।